'महिलाओं की स्थिति को देखते हुए देश की स्थिति का पता लगाया जा सकता है'
आज अंर्तराष्ट्रीय महिला दिवस है मगर कितनी महिलाओं की इसकी जानकारी होगी। मेरे विचार से केवल सोशल मीडिया इस्तेमाल करने वाली या अखबार पढ़ने वाली महिलाओं को ही इस बात की जानकारी होगी। मुझे पूरा विश्वास है कि केवल कुछ महिलाएं इस दिन के इतिहास और महत्व को जानती होंगी।
अंर्तराष्ट्रीय महिला दिवस को हर साल 8 मार्च को महिलाओं की इतिहास और देशों में उपलब्धिओं को सेलिब्रेट करने के लिए आयोजित किया जाता है। पहला अंर्तराष्ट्रीय महिला दिवस 28 फरवरी 2009 को न्यूयोर्क में मनाया गया था। 8 मार्च का सुझाव 1910 के अंर्तराष्ट्रीय महिला कॉन्फ्रेंस मिला जिसके बाद यह ''अंर्तराष्ट्रीय महिला दिवस'' बन गया। रुस में 1917 को महिलाओं मताधिकार मिलने के बाद से यह वहां का राष्ट्रीय अवकाश बन गया।
भारत में भी इस कई कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं मगर सभी औपचारिक या खाना पूर्ति के लिए होते हैं। क्योंकि कार्यक्रमों में महिलाओं के बारे में चर्चा तो की जाती है मगर उनकी स्थिति हर साल बद्दतर होती जा रही है।
अगर मैं वैदिक काल की बात करुं तो उस समय महिलाएं पुरुषों के समकक्ष होती थी लेकिन जैसे-जैसे मानव सभ्यता ने विकास करना शुरु किया महिलाओं की स्थिति बिगड़ती चली गयी और 19वीं सदी आते-अाते यह बद से बद्दतर होती चली गयी।
मैं यहां अपने पहाड़ के अनुभवों के बारे में बात करना चाहूंगा। बचपन में मेरी दादी अपने बारे में बताया करती थीं कि कैसे उन्हें लकड़ी और जानवरों के चारे के लिए दूर जंगलों में जाना पड़ता था, वह बताती थीं कि उनका परिवार मंडवा (रागी) और बाजरा (स्थानीय नाम झंगोरा) पर गुजर बसर करता था। गेहूं की रोटी या चावल तो जब मेहमान आते थे या शादी-ब्याह के अवसरों पर ही मिलता था। मगर दूध-घी की कमी नहीं थी, उस जमाने में सारा लेन वस्तुओं के आदान-प्रदान के जरिए होता था। तब आज की तरह के साधन नहीं थे सड़क हमारे घर से 100 किलामीटर की दूरी पर थी, सभी लोग खेती पर निर्भर थे, उनके पास पहनने को अच्छे कपड़े और जूते-चप्पल नहीं होते थे। वह आगे बताती थीं कि उन्हें सुबह तड़के से लेकर रात तक काम करना पड़ता था। सुबह 4 बजे उठकर सबसे पहले रोटियों के लिए मंडुआ या बाजरा पीसना पड़ता था जिसे पत्थर की बनी चक्की में पीसा जाता है यह सिलसिला मेरी मां और मेरे बचपन के 15 सालों तक बदस्तूर जारी रहा। उसके बाद खेती का काम और मवेशियों के लिए चारा एकत्रित करना और हर दूसरे दिन लकड़ी लेने के लिए दूर जंगल जाना पड़ता था दिन के खाने के लिए अनाज ओखली में कूटा जाता था। महिलाओं को सिर ढक कर रखना पड़ता था। पति के बड़े भाई को गलती से छू जाने पर स्नान करना पड़ता था, पीरियड्स के दौरान एक प्रसव हुई महिला की तरह 3-5 दिनों तक अलग रहना और खाना पड़ता था।
हमारे क्षेत्र में पानी की समस्या नहीं थी इसलिए उन्हें पानी भरने की चिंता नहीं करनी पड़ती थी। मेरी दादी को अपने जीवन की हर छोटी से छोटी घटना स्पष्ट रुप से याद थी वह अपने आप में हमारे लिए बोलती हुई इनसाइक्लोपीडिया थीं। 80 साल की उम्र तक पूरे परिवार के लिए खाना पकाती थी, घर के छोटे-मोटे काम जैसे निराई-गुड़ाई आदि करती थी और कभी भी बैठी नहीं रहती थीं। वह आगे बताती थीं कि बीमार पड़ने पर वैद्य ही सब कुछ होता था कई महिलाएं प्रसव के दौरान ही दम तोड़ देती थी बच्चे पहला साल नहीं देख पाते थे, जरुरत का सामान जैसे की नमक, गुड़ लेने और अपनी उपज को बेचने के लिए लगभग 7 दिनों तक पैदल चलते हुए 100 किमी दूर जाना पड़ता था जिसे स्थानीय भाषा में ढांकर कहा जाता था।
अंग्रेजों के उत्तराखंड का शासन अपने हाथ में लेने पर उन्होंने उत्तराखंड में तेजी से सड़कों का जाल बिछाया क्योंकि उन्हें यहां का मौसम और माहौल बिटेन जैसा लगता था और वे यहां अपने घर जैसा महसूस करते थे। यही कारण है कि दुर्गम होने के बावजूद हमारे इलाके में आजादी से पहले सड़क पहुंच चुकी थी, सड़क बनने से मुश्किल थोड़ी कम हुई और लोग एक जगह से दूसरी जगह जाने लगे और परिस्थितियां बदलने लगी।
हमारे क्षेत्र में पानी की समस्या नहीं थी इसलिए उन्हें पानी भरने की चिंता नहीं करनी पड़ती थी। मेरी दादी को अपने जीवन की हर छोटी से छोटी घटना स्पष्ट रुप से याद थी वह अपने आप में हमारे लिए बोलती हुई इनसाइक्लोपीडिया थीं। 80 साल की उम्र तक पूरे परिवार के लिए खाना पकाती थी, घर के छोटे-मोटे काम जैसे निराई-गुड़ाई आदि करती थी और कभी भी बैठी नहीं रहती थीं। वह आगे बताती थीं कि बीमार पड़ने पर वैद्य ही सब कुछ होता था कई महिलाएं प्रसव के दौरान ही दम तोड़ देती थी बच्चे पहला साल नहीं देख पाते थे, जरुरत का सामान जैसे की नमक, गुड़ लेने और अपनी उपज को बेचने के लिए लगभग 7 दिनों तक पैदल चलते हुए 100 किमी दूर जाना पड़ता था जिसे स्थानीय भाषा में ढांकर कहा जाता था।
अंग्रेजों के उत्तराखंड का शासन अपने हाथ में लेने पर उन्होंने उत्तराखंड में तेजी से सड़कों का जाल बिछाया क्योंकि उन्हें यहां का मौसम और माहौल बिटेन जैसा लगता था और वे यहां अपने घर जैसा महसूस करते थे। यही कारण है कि दुर्गम होने के बावजूद हमारे इलाके में आजादी से पहले सड़क पहुंच चुकी थी, सड़क बनने से मुश्किल थोड़ी कम हुई और लोग एक जगह से दूसरी जगह जाने लगे और परिस्थितियां बदलने लगी।
उसके बाद मेरी मां की बारी आयी उसने भी बहुत कष्ट उठाया है और आज भी उठा रही है। उनका जीवन भी दादी की तरह का ही रहा वही दिनचर्या उनकी भी होती थी हमें याद है मेरी मां लकड़ी लेने कम से कम 5 किलोमीटर पैदल जंगल में जाया करती थी और हम स्कूल की छुट्टी होने के बाद आधे तक जाते थे और अपनी मां के बोझ को हल्का करते हुए आधी लकड़ियां खुद ढोकर लाया करते थे। मैं और मेरे सभी भाई पढ़ाई के साथ-साथ मां का काम में हाथ भी बटांते थे जिससे उनका काम का बोझ थोड़ा हलका हो जाता था। धीरे-धीरे परिस्थितियां बदली और सड़क आने से सुविधाएं मिलने लगी जंगल जाना बंद हो गया, पत्थर की चक्की भी बंद हो गयी, राशन मिलने लगा तो मंड़आ और झंगोरे का उपयोग कम होने लगा और गेहूं और चावल ने इसकी जगह ले ली। इसके बाद हमारा युग आया यानि 80 और 90 का दशक आया ग्लोबलाइजेशन होने के कारण हालात बदलते गये। मेरी दादी और मां की तुलना में मेरी पत्नी या अन्य महिलाओं को कम कष्ट झेलने पड़े।
अगर हम 21वीं सदी की बात करें तो आज हमारे पुरखों द्वारा पहाड़ काटकर बनाये गये खेत बंजर होते जा रहे हैं महिलाएं पलायन करके तराई क्षेत्रों में आ गयी हैं घर में बची हैं तो मेरी मां और उसकी जैसी अन्य महिलाएं उनका जीवन पहले भी कठिन था और अब बुढ़ापे में उससे ज्यादा कष्टप्रद है।
हमारे पहाड़ को यह हाल है वहां 21वीं सदी की महिलाएं मजे में हैं खेत खलिहान बंजर छोड़ दिए हैं मवेशी कोई नहीं पालता है सब बाजार से खरीदी हुई चीजें खाते हैं ऐसा नहीं है कि महिलाओं के कष्ट खत्म हो गये है कुछ महिलाएं आज भी कठिन परिस्थितियों में जी रही हैं। मगर जब मैं यहां शहरों में महिलाओं को देखता हूं तो सोचता हूं कि मेरा पहाड़ बहुत अच्छी स्थिति में है। घर के नजदीक तक सड़क पहुंच गयी हैं।

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