अपना लेख शुरु करने से पहले मैं संक्षेप में अलग उत्तराखंड राज्य बनाने के लिए हुए आंदोलनों और आंदोलनकारियों पर हुए अत्याचारों की संक्षिप्त जानकारी देना चाहूंगा।
उत्तराखंड राज्य आंदोलन
1 सितम्बर, 1994 को उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन का काला दिवस माना जाता है, क्योंकि इस दिन जैसी पुलिस की बर्बरतापूर्ण कार्यवाही इससे पहले कहीं और देखने को नहीं मिली थी। पुलिस द्वारा बिना चेतावनी दिए ही खटीमा में आन्दोलनकारियों के ऊपर अंधाधुंध फ़ायरिंग की गई, जिसके परिणामस्वरुप सात आन्दोलनकारियों की मृत्यु हो गई।
2 सितम्बर, 1994 को मसूरी में खटीमा गोलीकाण्ड के विरोध में मौन जुलूस निकाल रहे लोगों पर एक बार फिर पुलिसिया क़हर टूटा। प्रशासन से बातचीत करने गईं दो सगी बहनों को पुलिस ने झूलाघर स्थित आन्दोलनकारियों के कार्यालय में गोली मार दी। इसका विरोध करने पर पुलिस द्वारा अंधाधुंध फ़ायरिंग कर दी गई, जिसमें लगभग 21 लोगों को गोली लगी और इसमें से चार आन्दोलनकारियों की अस्पताल में मृत्यु हो गई।
2 सितम्बर, 1994 को मसूरी में खटीमा गोलीकाण्ड के विरोध में मौन जुलूस निकाल रहे लोगों पर एक बार फिर पुलिसिया क़हर टूटा। प्रशासन से बातचीत करने गईं दो सगी बहनों को पुलिस ने झूलाघर स्थित आन्दोलनकारियों के कार्यालय में गोली मार दी। इसका विरोध करने पर पुलिस द्वारा अंधाधुंध फ़ायरिंग कर दी गई, जिसमें लगभग 21 लोगों को गोली लगी और इसमें से चार आन्दोलनकारियों की अस्पताल में मृत्यु हो गई।
2 अक्टूबर, 1994 की रात्रि को दिल्ली रैली में जा रहे आन्दोलनकारियों का रामपुर तिराहा, मुज़फ़्फ़रनगर में पुलिस-प्रशासन ने जैसा दमन किया, उसका उदारहण किसी भी लोकतान्त्रिक देश तो क्या किसी तानाशाह ने भी आज तक दुनिया में नहीं दिया होगा। निहत्थे आन्दोलनकारियों को रात के अन्धेरे में चारों ओर से घेरकर गोलियाँ बरसाई गईं और पहाड़ की सीधी-सादी महिलाओं के साथ दुष्कर्म तक किया गया। इस गोलीकाण्ड में राज्य के 7 आन्दोलनकारी शहीद हो गए थे।
3 अक्टूबर, 1994 को रामपुर तिराहा गोलीकाण्ड की सूचना देहरादून में पहुँचते ही लोगों का उग्र होना स्वाभाविक था। इसी बीच इस काण्ड में शहीद स्व० श्री रवीन्द्र सिंह रावत की शवयात्रा पर पुलिस के लाठीचार्ज के बाद स्थिति और उग्र हो गई और लोगों ने पूरे देहरादून में इसके विरोध में प्रदर्शन किया, जिसमें पहले से ही जनाक्रोश को किसी भी हालत में दबाने के लिये तैयार पुलिस ने फ़ायरिंग कर दी, जिसने तीन और लोगों को इस आन्दोलन में शहीद कर दिया।
3 अक्टूबर 1994 को पूरा उत्तराखण्ड रामपुर तिराहा काण्ड के विरोध में उबला हुआ था और पुलिस-प्रशासन किसी भी प्रकार से इसके दमन के लिये तैयार था। इसी कड़ी में कोटद्वार में भी आन्दोलन हुआ, जिसमें दो आन्दोलनकारियों को पुलिसकर्मियों द्वारा राइफ़ल के बटों व डण्डों से पीट-पीटकर मार डाला गया नैनीताल में भी विरोध चरम पर था, लेकिन इसका नेतृत्व बुद्धिजीवियों के हाथ में होने के कारण पुलिस कुछ कर नहीं पाई, लेकिन इसकी भड़ास उन्होंने निकाली होटल प्रशान्त में काम करने वाले प्रताप सिंह के ऊपर। आर०ए०एफ० के सिपाहियों ने इन्हें होटल से खींचा और जब ये बचने के लिये होटल मेघदूत की तरफ़ भागे, तो इनकी गर्दन में गोली मारकर हत्या कर दी गई।
श्रीनगर शहर से 2 कि०मी० दूर स्थित श्रीयन्त्र टापू पर आन्दोलनकारियों ने 7 नवम्बर, 1994 से इन सभी दमनकारी घटनाओं के विरोध और पृथक उत्तराखण्ड राज्य हेतु आमरण अनशन आरम्भ किया। 10 नवम्बर, 1994 को पुलिस ने इस टापू में पहुँचकर अपना क़हर बरपाया, जिसमें कई लोगों को गम्भीर चोटें भी आई, इसी क्रम में पुलिस ने दो युवकों को राइफ़लों के बट और लाठी-डण्डों से मारकर अलकनन्दा नदी में फेंक दिया और उनके ऊपर पत्थरों की बरसात कर दी, जिससे इन दोनों की मृत्यु हो गई। उनके शव दो दिन बाद अलकनंदा नदी में तैरते पाये गये। - source: wikipedia उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन
3 अक्टूबर 1994 को पूरा उत्तराखण्ड रामपुर तिराहा काण्ड के विरोध में उबला हुआ था और पुलिस-प्रशासन किसी भी प्रकार से इसके दमन के लिये तैयार था। इसी कड़ी में कोटद्वार में भी आन्दोलन हुआ, जिसमें दो आन्दोलनकारियों को पुलिसकर्मियों द्वारा राइफ़ल के बटों व डण्डों से पीट-पीटकर मार डाला गया नैनीताल में भी विरोध चरम पर था, लेकिन इसका नेतृत्व बुद्धिजीवियों के हाथ में होने के कारण पुलिस कुछ कर नहीं पाई, लेकिन इसकी भड़ास उन्होंने निकाली होटल प्रशान्त में काम करने वाले प्रताप सिंह के ऊपर। आर०ए०एफ० के सिपाहियों ने इन्हें होटल से खींचा और जब ये बचने के लिये होटल मेघदूत की तरफ़ भागे, तो इनकी गर्दन में गोली मारकर हत्या कर दी गई।
श्रीनगर शहर से 2 कि०मी० दूर स्थित श्रीयन्त्र टापू पर आन्दोलनकारियों ने 7 नवम्बर, 1994 से इन सभी दमनकारी घटनाओं के विरोध और पृथक उत्तराखण्ड राज्य हेतु आमरण अनशन आरम्भ किया। 10 नवम्बर, 1994 को पुलिस ने इस टापू में पहुँचकर अपना क़हर बरपाया, जिसमें कई लोगों को गम्भीर चोटें भी आई, इसी क्रम में पुलिस ने दो युवकों को राइफ़लों के बट और लाठी-डण्डों से मारकर अलकनन्दा नदी में फेंक दिया और उनके ऊपर पत्थरों की बरसात कर दी, जिससे इन दोनों की मृत्यु हो गई। उनके शव दो दिन बाद अलकनंदा नदी में तैरते पाये गये। - source: wikipedia उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन
राज्य बनने के बाद के 15 सालों में राज्य में प्रति व्यक्ति आमदनी बढ़ी है मगर लोगों का पलायन नहीं रुका लोग पहाड़ों को छोड़कर तराई इलाकों में बसने लगे। आज यहां की आधी से ज्यादा आबादी तराई इलाकों में रहती है।अनेकों लोगों के बलिदान और अथक प्रयास से उत्तराखंड बना मगर आज हमारे पर्वतीय क्षेत्रों की स्थिति यह है कि यहां अब केवल देवी-देवता और बुजुर्ग ही रहते हैं, उत्तराखंड के कई गांव लगभग खाली हो चुके हैं, खेत-खलिहान बंजर पड़े है, कुछ गांव में केवल 1-2 बुजुर्ग गांव का अस्तित्व बचाए हुए हैं। कुछ प्राथमिक स्कूलों में कक्षा 1 से 5वीं तक 10 बच्चे भी नहीं हैं तथा कुछ बंद हो चुके हैं। खासकर पौड़ी और अल्मोड़ा जिलों में स्थिति बेहद चिंताजनक है।
पलायन के कारण
www.nird.org के एक रिसर्च पेपर के अनुसार पलायन के कुछ वजहें बतायी गयी हैं जो इस प्रकार हैं:
1. लगभग 17.39 प्रतिशत लोग नौकरी मिलने या तबादला होने की वजह से पलायन करते हैं।
2. लगभग 18.67 प्रतिशत लोग बेहतर नौकरी या आमदनी के मौकों के लिए पलायन करते हैं।
3. सबसे ज्यादा 47.06 प्रतिशत लोग रोजगार के अवसर न होने की वजह से पलायन करते हैं।
4. करीब 11.51 प्रतिशत लोग पढ़ाई या प्रशिक्षण के लिए पलायन करते हैं।
5. करीब 5.27 प्रतिशत लोग अन्य कारणों से पलायन करते हैं।
6. राज्य के ग्रामीण इलाकों में दो बुनियादी सुविधाओं की भारी कमी - अच्छी स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा।
उत्तराखंड में रोजगार की स्थिति
रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड के 94 प्रतिशत प्रवासी कामगार नौकरी करते हैं, उनमें ज्यादातर कम सेलरी वाले छोटी-मोटी नौकरियां करते हैं जैसे कि घरेलू नौकर, चौकीदार, चपरासी, आफिस सहायक, कुक, अकुशल कामगार, फैक्ट्री कामगार आदि। उनके द्वारा भेजा गया पैसा उनके घर की आमदनी में महत्वपूर्ण योगदान देता है जो लगभग 26 प्रतिशत है। यदि हम पेंशनरों को भी शामिल कर लें तो निसंदेह यह घर की आमदनी को लगभग 40 प्रतिशत बढ़ाता है।
बाहर से भेजे जाने वाले पैसा का ज्यादातर हिस्सा घर की रोजमर्रा की जरुरतों पर खर्च होता है। 60 प्रतिशत से ज्यादा परिवार बाहर से प्राप्त किए गए पैसे को पढ़ाई और स्वास्थ्य देखभाल से जुड़े खर्चों पर खर्च करते हैं। केवल 5 प्रतिशत परिवार ही इस पैसा का उपयोग अपने बच्चों की पढ़ाई पर खर्च करते हैं। ऐसा कोई भी परिवार नहीं है जो इस पैसा का उपयोग आय बढ़ाने वाले किसी व्यवसाय को विकसित करने पर खर्च करता है।
यहां गांवों की दुकानों पर बिकने वाली वस्तओं को तराई क्षेत्रों से खरीदा जाता है। यहां तक सब्जियां और दूध के उत्पादों को भी तराई इलाकों से मंगाया जाता है जो कि पहले गांवों में ही उपलब्ध होती थीं। इस प्रकार तराई इलाकों से भेजा गया पैसा एक फिर से तराई इलाकों में ही चला जाता है जो बहुत चिंता का विषय है।
लोगों ने अपने पुरखों द्वारा कठिन मेहनत से आबाद की गयी जमीन को बड़ी तादाद में बंजर होने के लिए छोड़ दिया है। पौड़ी और अल्मोड़ा जिलों में ऐसी स्थिति को बड़े पैमाने पर देखा जा सकता है। कुछ गांवों में तो खेती की जमीन बंजर पड़ी है। यदि मौका मिले तो गांव का हर शख्स, खासकर युवा, अपनी जमीन को बंजर छोड़ने के लिए तैयार हैं। बड़े पैमाने पर पलायन के चलते पर्वतीय क्षेत्रों के कई हिस्सों में सिंचाई की सुविधा वाली जमीन भी बंजर हो गयी है। इस मोहभंग कारण है बहुत कम उत्पादकता, जंगली जानवरों (जैसे बंदर, भालू, सूअरों) का बढ़ता खतरा जो फसल को बर्बाद कर देते हैं। इसके अलावा जुताई के लिए मजदूरों का मिलना मुश्किल हो गया है, जो मजदूर मिलते हैं वे बहुत ज्यादा पैसा लेते हैं। इस वजह से लोगों का खेती से मोहभंग हो गया है।
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| बदहाली की एक और तस्वीर |
भुतहा होते मकान और गांव
ऊमर 2012 के सर्वे के मुताबिक कई गांव बीरान हो चुके उनमें केवल कुछ बुजुर्ग लोग ही बचे हैं। पौड़ी गढ़वाल में, कई गांवों के अस्तित्व को केवल एक या दो लोगों ने बचाये रखा है जो अभी भी यहां रह रहे हैं मगर कुछ सालों में इन गांवों के नाम दुनिया से खत्म हो जायेंगे। इन गांवों में रह रहे लोगों की स्थिति बेहद खराब है क्योंकि उन्हें अपने ही बच्चों और रिश्तेदारों की बेरुखी का सामना करना पड़ता है जो शायद ही कभी उनसे मिलने आते हैं। कभी-कभी तो लोगों के अंतिम संस्कार के लिए भी लोगों को जुटाना मुश्किल हो जाता है।
शिक्षित लोगों के बड़े स्तर पर पलायन की वजह से स्थानीय ग्राम पंचायतों में गांव वासियों की आवाज कमजोर पड़ गयी है। ऐसी कई ग्राम पंचायतें सरकार के सामने विकास कार्यों और अन्य सेवाओं के लिए अपनी मांगें रखने में अक्षम हैं। राजनैतिक गलियारों में इस तरह के पलायन की वजह से अनुसूचित जाति के महत्व पर सकारात्मक असर पड़ा है क्योंकि उनकी आबादी जो 2001 की जनगणना में 19.8 प्रतिशत थी वह 2011 में 20.9 प्रतिशत हो गयी है। इन समूहों के राजनीतिक सशक्तीकरण की वजह से छुआछूत जैसी परंपरा भी लगभग खत्म हो गयी है जो कुछ दशकों पहले तक काफी गंभीर थी।
गांवों की युवा शक्ति रोजगार की कमी और इससे संबंधित व्यवसायिक प्रशिक्षण की कमी के चलते मंद पड़ चुकी है। वे खेती की कठिन मेहनत वाली गतिविधि से दूर रहते हैं। कुछ हिस्सों में उनके खेतों पर नेपाली लोग स्थानीय मार्केट की खपत के लिए सब्जियां उगा रहे हैं और इसके बदले में वे नाम मात्रा का पैसा देते हैं। अब स्थिति थोडी ठीक होने लगी है कई जगहों पर स्थानीय लोग अब सब्जी और अन्य नगदी फसलों की खेती करने लगे हैं और लाभ भी कमा रहे हैं।
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| आज इसकी जगह सीमेंट का मकान बन गया है किन्तु वीरान ही है। |
मुख्य धारा से पीछे छूट जाने का डर
मुख्य धारा से पीछे छूट जाने का डर गांव में रह रहे लोगों में साफ झलकता है। उनकी मुख्य चिंता बच्चों की पढ़ाई, बुढ़ापे में देखभाल, अच्छी स्वास्थ्य सुविधा, अच्छी आमदनी और अच्छा रहन-सहन है।
बाहर से प्राप्त होने वाले पैसे ने शायद ही पहाड़ में रहने वाली महिलाओं के काम के बोझ को कम किया है। हर सक्षम महिला दिन में से कम 8 से 10 घंटे विभिन्न गतिविधियों को करने में बिताती है जिसे में बच्चों, बुजुर्गों की देखभाल, खाना पकाना, साफ-सफाई के अलावा खेतों में काम करना, मवेशियों के लिए चारा एकत्र करना, मवेशियों को चराना और देखभाल शामिल है। जबकि पुरुष केवल 3 से 4 घंटे काम करते हैं वो भी केवल जुताई के दिनों मे। महिलाएं मनरेगा के तहत होने वाले कामों को करने के साथ-साथ घर के अन्य सभी कामों को भी करती हैं इसलिए परिवार की तंदुरुस्ती में महिलाओं की अहम भूमिका रहती है।
जमीन की तरह, पशुधन, खेत और गैर-कृषि संपत्ति जैसी अन्य संपत्तियों की उपलब्धता बहुत सीमित है। मवेशियों को मुख्य रुप से दूध के लिए पाला जाता है। ऐसा घरों की दूध की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किया जाता है। ग्रामीण घरों में दुधारों पशुओं की संख्या बहुत कम है इसके अलावा दुधारु जानवरों की गुणवत्ता खराब है जिससे बहुत कम दूध का उत्पादन होता है। सीमित भूमि, खेतों का दूर-दूर और सीढ़ीदार होने के कारण ज्यादातर परिवारों के लिए चारे की कमी गंभीर समस्या है क्योंकि चारा लेने के लिए उन्हें बहुत दूर जंगलों में जाना पड़ता है। इस कारण से लोगों ने दुधारु पशुओं को पालना कम कर दिया है। पीडीएस के माध्यम से सस्ता चारा उपलब्ध कराने के उदृदेश्य से दुधारु पशुओं की नस्ल में सुधार और दूध खरीदने के लिए बुनियादी ढांचे के शायद ही कोई कार्यक्रम बनाया गया है।
उत्तराखंड से बाहर रहने वाले ज्यादातर प्रवासी जो अच्छी स्थिति में हैं, अपने राज्य के प्रति उदासीन है वे संपन्न होने के बावजूद अपनी जन्मभूमि के लिए कुछ नहीं करते हैं मैंने देखा है कि कुछ लोगों को पता भी नहीं है कि वह उत्तराखंड में कहां के रहने वाले है अब उनके साथ केवन उनका सरनेम ही बचा है।
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| (c) प्रतीकत्मक फोटो |
इसका समाधान क्या है
समाधान हर समस्या का होता है, इसके लिए हमें यह हीन भावना अपने मन से निकालनी होगी कि यहां कुछ नहीं होता, यहां जिंदगी खराब करके कोई लाभ नहीं है। जब तक अपनी माटी के बारे में हमारे इस तरह के विचार रहेंगे पहाड़ खाली होते रहेंगे फिर चाहे सरकार कितनी भी एडी-चोटी का जोर क्यों न लगा ले।
अंत में इतना ही कहूंगा कि हमें उन शहीदों की कुर्बानी याद रखनी चाहिए जिन्होंने अलग राज्य के सपने को साकार करने के लिए अपने प्राण गंवा दिए।
सभी तथ्य मेरे रिसर्च, जानकारी और विकीपीडिया में दर्ज जानकारी पर आधारित है।





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