गांधी जी कहा है ''सत्य से भिन्न कोई परेश्वर है, ऐसा मैंने कभी अनुभव नहीं किया''
कस्तूरबा बाई के साथ गांधीजी
गांधी जी की आत्मकथा - सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा को पढ़ने के बाद मैं खास प्रभावित हुआ हूं मुझे लगता है कि इसे हमारे स्कूलों के पाठ्य क्रम में शामिल किया जाना चाहिए, क्योंकि शाब्दिक ज्ञान के साथ-साथ बच्चों को नैतिक ज्ञान देना भी परम आवश्यक है। छात्रों को गांधी जी के अनुभवों और प्रयोगो से बहुत कुछ सीखने को मिलगा। इस पुस्तक का सार मेरे अनुसार तो यही है कि जो भी व्यक्ति अपने अहम और हितों से पहले दूसरों के हितों को रखता है वही समाज में बदलाव ला सकता है तथा सत्य के साथ चलने से न केवल इंसान मजबूत बनता है बल्कि वह समाज में एक विशेष दर्जा भी प्राप्त करता है।
इस पुस्तक में गांधीजी ने अपने सामान्य से गुजराती बालक से महात्मा बनने की प्रक्रिया, अपने विकारों, कमजोरियों और व्रतों के बारे में विस्तार से वर्णन किया है। इसका श्रेय उन्होंने महान लेखकों की पुस्तकों को दिया है जिन्हें पढ़कर वे अपने मूल्य का समझ सके और हिन्दुस्तान का स्वाधीनता दिलाने में इतना बड़ा योगदान दे पाये।
अपनी इस आत्मकथा में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के अपने अनुभवों, वहां रहने वाले भारतीय लोगों की दयनीय स्थिति, अंग्रेजों के जुल्मों की चरम स्थितियों और भेदभाव का संपूर्ण वर्णन किया है। दक्षिण अफ्रीका में हिन्दुस्तानियों (जिन्हें गिरमिट कहा जाता था) को अंग्रेजों की मनमानी से स्वतंत्र करने के लिए उन्होंने सत्याग्रह किया, मुकदमे लड़े, जेल भी गये लेकिन हार नहीं मानी और इसी वजह से गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में न केवल हिन्दुस्तानियों के बीच बल्कि वहां के हब्शियों के बीच भी बेहद लोकप्रिय हो गये थे। इसी लोकप्रियता के कारण वे अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बन चुके थे, अंग्रेजों के अनेक प्रयत्नों के बावजूद वे गांधी पर अंकुश नहीं लगा पाये। पुस्तक के अनुसार गांधी जी ने अपने सभी सत्याग्रह शांत रहते हुए और कानून का पालन करते हुए किए, जिसके कारण अंग्रेज अफसर भी उनका सम्मान करते थे। गांधी समय मिलने पर सार्वजनिक कार्यों में भी बढ़-चढ़कर भाग लेते थे।
भोजन के साथ उनके प्रयोगों से उन्होंने न केवल खुद को बल्कि अपनी पत्नी कस्तूरबा बाई और बेटे को मौत के मुंह तक पहुंचा दिया लेकिन आखिर में वे इस प्रयोग में सफल रहे। गांधी जी शायद भारत या दुनिया के पहले 'वीगन' थे यानि ऐसे शाकाहारी लोग जो दूध या दूध से बने पदार्थ भी नहीं लेते हैं।
उन्होंने इस अपनी इस आत्मकथा में खादी के जन्म और चरखे की तलाश और करघा शुरु करने के बारे में विस्तार से बताया है उदाहरण के लिए- कैसे उन्होंने महिलाओं को सूत कातने के लिए राजी किया, इसका प्रचार किया। स्वयं इसे धारण किया। इसे स्वदेशी आंदोलन से जोड़ा।
उन्होंने माना कि उनके महात्मा बनने में उनकी पत्नी कस्तूरबा का बहुत बड़ा हाथ है जो निस्वार्थ भाव से उनका सहयोग करती रही, गांधी जी ने अपनी इस आत्मकथा में उस हर एक व्यक्ति का आभार प्रकट किया है जिसने उनका उनके आंदोलनों में समर्थन किया है।
आखिर में उन्होंने लिखा कि ''सत्य के प्रयोग करते हुए मैनें आनन्द लूटा है और आज कभी लूट रहा हूं। लेकिन मैं जानता हूं कि अभी मुझे विकट मार्ग तय करना है। इसके लिए मुझे शून्यवत बनना है। मनुष्य जब तक स्वेच्छा से अपने को सबसे नीचे नहीं रखता, तब तक उसे मुक्ति नहीं मिलती। अहिंसा नम्रता की पराकाष्ठा है और यह अनुभव-सिद्ध बात है कि इस नम्रता के बिना मुक्ति कभी नहीं मिलती। ऐसी नम्रता के लिए प्रार्थना करते हुए और उसके लिए संसार की सहायता की याचना करतं हुए इस समय तो मैं इन प्रकारणों को बंद करता हूं''।
यह पुस्तक किसी खजाने से कम नहीं है, इसका अध्ययन प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए।
इस पुस्तक में गांधीजी ने अपने सामान्य से गुजराती बालक से महात्मा बनने की प्रक्रिया, अपने विकारों, कमजोरियों और व्रतों के बारे में विस्तार से वर्णन किया है। इसका श्रेय उन्होंने महान लेखकों की पुस्तकों को दिया है जिन्हें पढ़कर वे अपने मूल्य का समझ सके और हिन्दुस्तान का स्वाधीनता दिलाने में इतना बड़ा योगदान दे पाये।
अपनी इस आत्मकथा में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के अपने अनुभवों, वहां रहने वाले भारतीय लोगों की दयनीय स्थिति, अंग्रेजों के जुल्मों की चरम स्थितियों और भेदभाव का संपूर्ण वर्णन किया है। दक्षिण अफ्रीका में हिन्दुस्तानियों (जिन्हें गिरमिट कहा जाता था) को अंग्रेजों की मनमानी से स्वतंत्र करने के लिए उन्होंने सत्याग्रह किया, मुकदमे लड़े, जेल भी गये लेकिन हार नहीं मानी और इसी वजह से गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में न केवल हिन्दुस्तानियों के बीच बल्कि वहां के हब्शियों के बीच भी बेहद लोकप्रिय हो गये थे। इसी लोकप्रियता के कारण वे अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बन चुके थे, अंग्रेजों के अनेक प्रयत्नों के बावजूद वे गांधी पर अंकुश नहीं लगा पाये। पुस्तक के अनुसार गांधी जी ने अपने सभी सत्याग्रह शांत रहते हुए और कानून का पालन करते हुए किए, जिसके कारण अंग्रेज अफसर भी उनका सम्मान करते थे। गांधी समय मिलने पर सार्वजनिक कार्यों में भी बढ़-चढ़कर भाग लेते थे।
भोजन के साथ उनके प्रयोगों से उन्होंने न केवल खुद को बल्कि अपनी पत्नी कस्तूरबा बाई और बेटे को मौत के मुंह तक पहुंचा दिया लेकिन आखिर में वे इस प्रयोग में सफल रहे। गांधी जी शायद भारत या दुनिया के पहले 'वीगन' थे यानि ऐसे शाकाहारी लोग जो दूध या दूध से बने पदार्थ भी नहीं लेते हैं।
इस पुस्तक में उन्होंने अपने भोग-विलास की भावना और बाद में ब्रह्मचर्य अपनाने के बारे में बेहद रुचिकर ढंग से वर्णन किया है, गांधी जी ने कहा कि वे भी पत्नी को भोग-विलास की वस्तु समझते थे मगर जैसे-जैसे उनकी बुद्धि का विकास होता गया वे पत्नी की भूमिका को समझने लगे। ब्रह्मचर्य अपनाने का उनका मकसद सन्तान उत्पत्ति को रोकना था इस सम्बम्ध में उन्होंने लिखा है ''अच्छी तरह चर्चा करने और गहराई से सोचने के बाद सन 1906 में मैंने ब्रह्मचर्य का व्रत लिया। व्रत लेने के दिन तक मैंने धर्मपत्नी के साथ सलाह नहीं की थी, पर व्रत लेते समय की। उसकी ओर से मेरा कोई विरोध नहीं हुआ। यह व्रत मेरे लिए बहुत कठिन सिद्ध हुआ। मेरी शक्ति कम थी। मैं सोचता, विकारों को किस प्रकार दबा सकूंगा। अपनी पत्नी के साथ विकारयुक्त सम्बम्ध का त्याग मुझो एक अनोखी बात मालूम होती थी। फिर भी मैं याह साफ देख सकता था कि यही मेरा कर्तव्य है। मेरी नीयत शुद्ध थी। यह सोचकर कि भगवान शक्ति देगा, मैं इसमें कूद पढ़ा''।
उन्होंने इस अपनी इस आत्मकथा में खादी के जन्म और चरखे की तलाश और करघा शुरु करने के बारे में विस्तार से बताया है उदाहरण के लिए- कैसे उन्होंने महिलाओं को सूत कातने के लिए राजी किया, इसका प्रचार किया। स्वयं इसे धारण किया। इसे स्वदेशी आंदोलन से जोड़ा।
उन्होंने माना कि उनके महात्मा बनने में उनकी पत्नी कस्तूरबा का बहुत बड़ा हाथ है जो निस्वार्थ भाव से उनका सहयोग करती रही, गांधी जी ने अपनी इस आत्मकथा में उस हर एक व्यक्ति का आभार प्रकट किया है जिसने उनका उनके आंदोलनों में समर्थन किया है।
आखिर में उन्होंने लिखा कि ''सत्य के प्रयोग करते हुए मैनें आनन्द लूटा है और आज कभी लूट रहा हूं। लेकिन मैं जानता हूं कि अभी मुझे विकट मार्ग तय करना है। इसके लिए मुझे शून्यवत बनना है। मनुष्य जब तक स्वेच्छा से अपने को सबसे नीचे नहीं रखता, तब तक उसे मुक्ति नहीं मिलती। अहिंसा नम्रता की पराकाष्ठा है और यह अनुभव-सिद्ध बात है कि इस नम्रता के बिना मुक्ति कभी नहीं मिलती। ऐसी नम्रता के लिए प्रार्थना करते हुए और उसके लिए संसार की सहायता की याचना करतं हुए इस समय तो मैं इन प्रकारणों को बंद करता हूं''।
यह पुस्तक किसी खजाने से कम नहीं है, इसका अध्ययन प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए।
सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा - महात्मा गांधी

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