सोच, शौच और शौचालय

स्‍वच्‍छ भारत मिशन के अनुसार अभी तक 31,14,249 व्‍यक्तिगत टॉयलेट्स, 1,15,786 सामुदायिक एवं सार्वजनिक टॉयलेट्स का निर्माण कर लिया गया है और 531 शहरों को खुले में शौच मुक्‍त बना दिया गया है। आंकड़े तो वा‍कई में बहुत प्रभावशाली हैं मगर जमीनी हकीकत कोई नहीं जानता है।
पिछले दिनों में एक रिर्पोट देख रहा था कि लोग अपने शौचालयों को किस तरह उपयोग कर रहे हैं। कुछ लोग पशुओं का चारा रखने, स्‍टोर रुम के तौर पर, दुकान के लिए और यहां तक कि रसोई के तौर पर भी इस्‍तेमाल कर रहे थे।
सरकार शौचालय बनवाने के लिए आर्थिक मदद भी दे रही है, फिर भी लोग शौचालय बनाने की बजाय खुले में शौच के लिए जाना पसंद करते हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं लेकिन यदि दृढ़ इच्‍छा शक्ति हो इंसान हल निकाल ही लेता है।
हाल ही में होली के समय मैं अपने गांव गया हुआ था तो मुझे अपनी बुआ के गांव जाने का मौका मिला जो मुख्‍य सड़क से लगभग 3 किमी. दूरी पर है और रास्‍ता एकदम खड़ी चढ़ाई वाला है। मैंने देखा कि वहां पर लोग शौचालय और बाथरुम बनवा रहे थे, मैं आपको बता दूं वहां तक सामान पहुंचाना ही बड़ी बात है, मुख्‍य सड़क से गांव तक सामान पहुंचाने के दो साधन है पहला तो सिर में रखकर ले जाना और दूसरा खच्‍चरों पर, दोनों ही तरीके मंहगे हैं खर्च लगभग डेढ़ गुना बढ़ जाता है। पानी भी दूर से भरकर लाना होता है, लेकिन फिर भी वे प्रयास कर रहे हैं और मैं जानता हूं कि वे मेहनत करने के बाद उसे इस्‍तेमाल भी करेंगे।
गांव का रोना रोने से पहले देश की राजधानी का हाल जानना जरुरी है क्‍योंकि यहां की स्थिति दूर-दराज के गांव से भी बद्दतर है, यहां झुग्गियों में रहने वाले लगभग सभी लोग खुले में शौच करने जाते हैं वे इस बात की बिल्‍कुल परवाह नहीं करते हैं कि जहां वे शौच कर रहे हैं उससे किसी को परेशानी तो नहीं होगी या कोई उन्‍हें देख तो नहीं रहा है। मेरे घर के सामने से रेलवे लाइन गुजरती है, वहां हमेशा तांता सा लगा रहता है।
दिल्‍ली जैसे शहरों में मैंने पाया है कि इंसान सिर्फ अपने से मतलब रखता है उसका जहां मन करता है वहां थूकता है, पेशाब करता है और शौच करता है। लोगों को इस बात की जरा भी परवाह नहीं रहती कि इससे किसी को असुविधा हो सकती है। एक बार मैं AIIMS के पास से गुजर रहा था मैंने देखा वहां एक व्‍यक्ति खुले में पेशाब कर रहा था और उसकी बगल में बोर्ड लगा हुआ था "यहां पेशाब करना मना है" जब मैंने उसके टोकते हुए कहा भाई बोर्ड का तो सम्‍मान कर, पता है उसने क्‍या जवाब दिया - उसने कहा "बोर्ड मैने ही लगाया है" बताइए ऐसी मानसिकता वाले लोग देश के विकास में खाक योगदान देंगे। AIIMS के आस-पास कई सारे सार्वजनिक शौचालय हैं मगर लोग ढूंढना जरुरी नहीं समझते हैं या 1-2 रुपये नहीं देना चाहते हैं।
बस खाली जगह दिखनी चाहिए, देखते ही लोग ऐसे टूट पड़ते हैं मानों उनके बाप दादाओं की जागीर हो, रातों रात झुग्गियां खड़ी हो जाती है, प्रशासन को दिखता तो है मगर वे कुछ करते नहीं। सारी गंदगी झुग्‍गी वाले ही फैलाते हैं उनके बच्‍चे सड़क में शौच करने लगते हैं और ये लोग नालों और रेल की पटरियों को ढूंढते हैं। घर में एलसीडी, डीटीएच, हाथ में स्‍मार्टफोन तो है लेकिन खाना लकड़ियां जलाकर बनाते हैं, खुले में नहाते हैं, आस-पास गंदगी फैलाते हैं।

जब तक ऐसे लोगों का जमीर नहीं जागेगा कोई भी योजना या परियोजना सफल होने की संभावना कम ही नजर आती
है। केवल शौचालय बना देने से यह समस्‍या खत्‍म नहीं होगी, सबसे अहम बात है लोगों का स्‍वच्‍छता के प्रति जागरुक होना, अन्‍यथा घर के अंदर बने शौचालय स्‍वच्‍छता की बजाय गंदगी ज्‍यादा फैलायेंगे।

जागरुक और जिम्‍मेदार नागरिक बनिये और गंदगी फैलाने वाले लोगों को टोकिये और देश को स्‍वच्‍छ बनाने में अपना योगदान दीजिए।

अपने सुझाव, राय, प्रतिक्रिया और अनुभवों को साझा करना ना भूलें।

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