घमन्डी व्यक्ति प्राय शक्की होता है
कल ही मैंने मुंशी प्रेमचन्द द्वारा लिखा गया कालजयी उपन्यास गोदान पढ़ना पूरा किया, अभी भी मेरे जेहन में इसकी कहानी और किरदार एकदम ताजा हैं जो रह-रहकर मेरे मन-मस्तिक में घूमते रहते हैं। हालांकि यह उपन्यास 1936 में प्रकाशित हुआ था लेकिन आपको एक पल के लिए भी ऐसा नहीं लगेगा कि यह इतना पुराना है और वर्तमान परिवेश से इसका कोई लेना-देना नहीं है, मगर शर्म की बात है कि यह आज के जमाने के लिए भी एकदम सटीक बैठता है।
इस उपन्यास का नायक होरी एक गरीब लेकिन नेकदिल इंसान है वह पत्नी धनिया और अपने 3 बच्चों के साथ रहता है। कहने को तो वह किसान है मगर उसे दो जून खाना भी नसीब नहीं है, कपड़ों पर न जाने कितने ही पैबंद लग चुके हैं, उसकी पत्नी धनिया एक दयायु लेकिन मुखर महिला है जो गलत बात बिल्कुल भी सहन नहीं करती।
कर्ज में डूबा होरी अपनी परिस्थितियों से जूझता रहता है, गले-गले तक कर्ज में डूब हुए, उसके परिवार के पास पहनने के लिए अच्छे कपड़े नहीं हैं, पेट भर खाने को नहीं है जितनी फसल वह उगाता है वह उसके कर्ज के सूद और लगान का भुगतान करने में चली जाती है, जिसका कर्ज बढ़ता ही जाता है, उसका रु.30 का कर्ज 8-9 सालों में साहूकार ने रु. 300 बना दिया है।
होरी की पत्नी का सपना है कि उनके घर के बाहर भी गाय बंधी हो वह कहती है मैं उसकी बहुत सेवा करुंगी और उसका दूध बेचकर अपना कर्ज उतारुंगी, होरी किस तरह अनेकों जतन करके 80 रुपये में गाय खरीदकर लाता है मगर गाय अगले ही दिन मर जाती है और उनके सभी सपनों पर पानी फिर जाता है, गो हत्या के नाम पर उनसे न जाने कैसे-कैसे डाढ़ (जुर्माने) वसूले जाते है जिससे होरी की कमर और टूट जाती है।
इसमें वर्णन किया गया है कि जमींदार, मिल मालिक, पत्र सम्पादक, बैक मैनेजर, थानेदार, पटवारी, तहसीलदार, वकील कैसे जोंक बनकर गरीबों का रक्त चूस रहे हैं, कैसे गांव के पंडित पुरोहित अपना हित साधने के लिए उनको भगवान, समाज, धर्म और जात-बिरादरी का भय दिखाकर दबा रहे हैं। भारत का अन्नदाता कहा जाने वाला किसान पल-पल मर रहा है कमोबेश आज भी किसानों की वही बदहाली है मगर आज के किसान उतने सहन शील नहीं हैं।
एक तरफ जहां होरी और उसकी पत्नी धनिया अपने परिवार के साथ किस तरह गुजर-बसर कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर रियासत के राय साहब जैसे लोग दोस्तों के साथ विलासिता का आनंद ले रहे हैं वे पार्टियां करते हैं, शिकार खेलने जाते हैं, सांस्कृतिक आयोजन करते हैं और इसके आयोजन के लिए धन की व्यवस्था भी गरीब लोगों से करते हैं।
एक तरफ जहां गरीबी है, बदहाली है, लोग पाई-पाई के लिए मोहताज है वहीं दूसरी ओर ऐशो आराम है, दिखावा है। जहां तक होरी की बात है वह बहुत आशावादी व्यक्ति है और गले-गले तक कर्ज में डूबे होने के बावजूद भी खुश रहता है, वह अच्छे दिनों के सपने बुनता रहता है मगर कायरों की तरह आत्महत्या करने का विचार उसके मन में कभी नहीं आता है।
आखिर में दुर्बल हो चुका होरी महतो अपना दम तोड़ देता है और पंडित एवं सभी लोग गोदान करने के लिए कहते हैं, इस पर धनिया उठती है, आज जो सुतली बेची थी, उसके बीच आने पैसे लाई और पति के ठंडे हाथ में रखकर सामने खड़े पंडित कहा "महाराज, घर में न गाय है, न बछिया, न पैसा। यहीं पैसे हैं, यही इनका गोदान हैं" यह बहुत ही मार्मिक दृश्य है।
कहानी में अनेक उतार-चढ़ाव आते हैं, कई पहलू बड़े मार्मिक हैं, एक पल के लिए भावनाएं उमड़ती, ठहरती हैं और फिर मंद पड़ जाती है, किरदारों की बेबसी, दर्शनशास्त्र, प्रेम, त्याग, किरदारों के आसमान से जमीन पर गिरने का चित्रण बेहद खूबसूरती के साथ किया गया है जो पाठक को बांधे रखता है।
सभी को यह उपन्यास जरुर पढ़ना चाहिए क्योंकि यह मुंशी प्रेमचंद जी की अमरकृति है।

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