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| दिल्ली की भीड़-भाड़ (credit- Internet) |
क्या पलायन के इस दौर में वापिस अपनी जन्म भूमि में जाना समझदारी है?
दोस्तों दिल्ली में रहते हुए आज मुझे 20 साल से ज्यादा हो गये हैं और इन 20 सालों में मैंने बहुत कुछ सीखा, जाना और अनुभव किया, जिंदगी भी हंसी-खुशी से बीत रही है, बच्चे बड़े हो रहे हैं मगर एक चीज जो मुझे अंदर ही अंदर खाये जाती है वह ये कि हमारे पूर्वजों द्वारा कड़ी मेहनत से पहाड़ काटकर बनाये गये सीढ़ीदार खेतों, घरों और धरोहरों का आगे चलकर क्या होगा, क्या उन खूबसूरत वादियों में बसा हमारा घर-गांव वीरान हो जायेगा?, हमारी अगली पीढियों को कौन बतायेगा कि हमारा घर-गांव कहां है! वैसे अभी तक मेरे बच्चे अपने गांव को बहुत प्यार करते हैं और मौका पाते ही वहां पहुंच जाते हैं। मगर समस्या यह है कि घर-गांव के अन्य सदस्य नहीं चाहते हैं उनके बच्चे वहां रहें। आपको यकीन नहीं होगा लेकिन यह सच है कि हमारे गांव के प्राइमरी स्कूल में कक्षा 1 से 5 तक केवल 9 बच्चे हैं।![]() |
| मेरे गांव को हरा-भरा और शांत वातावरण |
सच कहूं तो मैं खुद को भी पलायन का गुनाहगार मानता हूं, इसी के चलते मन उदास हो जाता है, यहां दिल्ली की अफरा-तफरी में मन बहुत उग्र रहता है, हर दिन सोचता हूं कब यहां से निकलू, इसी प्रयास में मैंने 2 साल पहले गांव वापिस जाने का फैसला किया, पत्नी भी तैयार थी और बच्चे तो पहले से ही उत्साहित थे मगर माता-पिता ने मंजूरी नहीं दी इसलिए मन मारकर रह गया और निराश हो गया।
अपनी जडों में वापिस लौट जाने की एक और कोशिश (Reverse Migration)
पिछले साल मई में मेरी माताजी को स्तन कैंसर होने की पुष्टि हुई और इसी चक्कर में मेरे पिताजी जो फेफड़ों की बीमारी से पीडि़त थे अचानक हमें छोड़कर चल बसे, इस घटना से मैं बहुत ज्यादा टूट गया और मेरा तनाव और बढ़ गया। एक साल के इलाज के बाद अब मेरी माताजी की हालत स्थिर है और वह स्वस्थ है, उनकी जिंदगी धीरे-धीरे पटरी पर लौट रही है लेकिन एक साल से हमारा पैतृृृक घर बंद पड़ा है क्योंकि मैं माताजी की देखभाल में व्यस्त रहता हूं गांव जाने का समय नहीं निकाल पाता हूं, बहुत कम ही वहां जा पाता हूं इसलिए मैंने इस साल फिर से गांव वापिस जाने का मन बनाया लेकिन इस बार तो हद हो गयी हर किसी ने मेरे इस फैसले का विरोध किया – किसी ने कहा कि अगर घर नहीं चल पा रहा है तो कुछ और काम ढूंढ लों, किसी ने कहा बच्चों का क्या होगा, गांव में क्या है, वहां क्या करोगे, गृहस्थी कैसे चलेगी और भी न जाने क्या-क्या... लोगों की भीड़ में अकेला पड़ गया जबकि मैं घर जाकर इसकी मरम्मत भी कर आया हूं लेकिन मैं अकेला पड़ गया हूं।
दोस्तों उत्तराखंड का कोई व्यक्ति पहाड़ से पलायन करता है तो उसे बहुत समझदारी भरा फैसला कहा जाता है, ऐसा माना जाता है कि वह भविष्य की सोच रहा है मगर शहरों की भीड़-भाड़, बीमारी, गंदगी, प्रदूषण, शोर भरे माहौल से निकलकर अपने पैतृक घर जाता है तो उसे नालायक, नासमझ, नाकारा समझा जाता है। इसी सोच के चलते उत्तराखंड से पलायन लगातार जारी है।
यह तर्क सही है कि अच्छे जीवन की तलाश में इंसान ही नहीं बल्कि जीव भी अच्छे भोजन की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह तक जाते हैं जिसे प्रवास कहा जाता है, जानवर अच्छे चारे की तलाश में मीलों का सफर तय करते हैं, मछलियां भोजन की तलाश में नदियों से निकलकर समुद्र तक जाती हैं, पंछी भी लाखों किलोमीटर्स की यात्रा करते हुए प्रवास करते हैं लेकिन वे कुछ समय बाद वापिस अपने मूल स्थान पर लौट जाते हैं।
एक सीख
यहां पर मैं सालमन मछली का उदाहरण लेना चाहूंगा - दोस्तों एक तरह की सालमन मछली नदी के मीठे पानी में पैदा होती है और खाने की तलाश में समुद्र में जाती है व्यस्क होने पर वह प्रजनन के लिए उसी जगह पर आती है जहां उसका जन्म हुआ था इसके लिए वह कई हजार किलोमीटर का सफर तय करती है, इसे दुनिया में जीवों द्वारा किया जाने वाला सबसे लम्बा प्रवास कहा जाता है, इस सफर के दौरान वह नदी की धारा के बिपरीत तैरती है, खाना छोड़ देती है, धारा की उल्टी दिशा में तैरने के कारण उसे कई जगहों पर नदी में कई फुट ऊपर उछलना पड़ता है वह कई बार छलांग लगाती लेकिन हार नहीं मानती है। अपनी प्रजनन की जगह तक पहुंचते-पहुंचते उसकी त्वचा बुरी तरह छिल चुकी होती है और वह लगभग मरने की स्थिति में होती है, उसका एक ही मकसद होता है अपने गंतव्य तक पहुंचना और प्रजनन करना। उसकी जीवनलीला प्रजनन करने के साथ ही खत्म हो जाती है।
सोचिए! क्या हम इंसानों में ऐसा गुण होता है, क्या इंसान इस तरह का जोखिम उठाता है – बिल्कुल नहीं, इक्सवीं सदी का इंसान सुख-सुविधाओं का आदी हो चुका है कि त्याग और बलिदान जैसे शब्द उसके लिए बेमानी है। हमें इस मछली से सीख लेने की जरुरत है।
पलायन के लिए कौन जिम्मेदार है
पलायन अकेले उत्तराखंड की समस्या नहीं है बल्कि यह पूरे भारत की समस्या है। सरकारों की उदासीनता का इसमें बड़ा योगदान है क्योंकि गांवों और शहरों के जीवन स्तर में जमीन आसमान का फर्क होता है, शहरों में 5 स्टार अस्पताल होते हैं गांव में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र होता है जिसमें शायद ही कभी चिकित्सा से जुड़ी चीजें मौजूद होती हैं। शहरों में 5 स्टार स्कूल हैं और गांवों में डिग्री कॉलेज तक नहीं हैं, व्यवसायिक कॉलेजों की बात करना तो फिजूल है।
लेकिन फिर भी मैं सपरिवार अपने पैतृक गांव जाना चाहता हूं और अन्य लोगों से भी अनुरोध करना चाहता हूं कि अपने पित्रों की घरती को यूं ही बरबाद न होने दें, अपनी अगली पीढ़ी को इसके बारे में जानकारी दें जिससे हमारा पहाड़ हमेशा आबाद बना रहे।
यह लेख मेरे व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित है इसलिए हो सकता है कुछ बातों आपको अपने लिए उपयुक्त न लगें। यदि आप कोई जानकारी या टिप्पणी देना चाहते हैं तो आपका स्वागत है।
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